बाटूँगा किसी का दर्द,
झुलसे तन को
दो गज कपास
और आमोद के क्षण |
कल मैं मृत नहीं था |
समझाया था जीवन के अंकुर को
शिक्षित होना ही धर्म है,
जात-पात इर्ष्या है
और हिंसा पाश्विक |
कल मैं मृत नहीं था |
उठाया था अशक्त को
नीचे झुके सर को
प्रतारणा से जंग में
दांडी यात्रा पे
स्वरों में ओज भरकर |
कल मैं मृत नहीं था |
लड़ा था कुत्सितों से
कुविचारों और कुरीतियों से
अंधविश्वास और अहंकार से |
शब्द प्रखर थे
और पाँव अडिग |
कल मैं मृत नहीं था |
ललकारा था यातनाओं को
क़ानून और शासन को |
माटी का उधार चुकाने
सत्याग्रह स्वीकार किया |
कल मैं मृत नहीं था |
पुकारा था हर समाज को
सद्गुण और सदाचार को |
स्वस्थ देश बनाने को
मेरे मन में
गाँधी ने कल जन्म लिया |
कल मैं मृत नहीं था |
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