Saturday, October 9, 2010

बुढ़ापे की टूट चुकी लाठी

इस अंधर में
दूर एक बुझती लौ लड़ रही
दो रोटी के लिए
अपने अस्तित्व के लिए

प्रौढ़ हो चुकी हड्डियों ने
कुछ प्राण बचा रखा है
इस पेट के लिए
कुछ कपूतों के लिए

इस दिये का क्या ठिकाना
जो बुझकर कभी जल नहीं सकता
किंचित कोई हथेली तो देता
बुझती लौ के लिए
थोड़े से तेल के लिए

मिथ्य है समाज की संरचना
जहाँ बूढ़े जन्मदाता की अवहेलना की तूने
अरे ! स्वार्थ हेतु ही सेवा कर दो
अपने भविष्य के लिए
अपने अप्रत्यक्ष अस्तित्व के लिए

इस अंधर में
दूर एक बुझती लौ लड़ रही
दो रोटी के लिए
अपने अस्तित्व के लिए