Tuesday, February 14, 2017

गुज़रता वक़्त देख रहा हूँ

शीशे की खिड़की के पीछे खड़ा हूँ 
बीस फ़ीट की सड़क ही क्षितिज़ लगती है इस शहर में 
सड़क पे कई पथिक हैं 
कभी हम भी पथिक थे इस सड़क पे 

कभी हम भी पथिक थे इस सड़क पे 
दौड़ लगती थी वक़्त के साथ हमारी 
वक़्त से आगे निकलने की होड़ में 
कुछ गलतियां कर गए हम 

कुछ गलतियाँ कर गए हम 
और वक़्त आगे निकल गया हमसे 
अब गुज़रता वक़्त देखना रोज़मर्रा हो गयी है 
इस खिड़की के शीशे पे यादों का सनीमा दिखता है 

सनिमे में वक़्त ने हमसफ़र बनाने का न्योता दिया था 
हमने बेहतर वक़्त के लिए उस न्योते का मज़ाक बना दिया 
फिर एक अज़ीब सी बात हुई 
वक़्त के बदले यादें हमसफ़र बन गयी 
और हम सनीमा देखते रहे  

1 comment:

Anurag said...

वक़्त के बदले यादें हमसफ़र बन गयी
और हम सनीमा देखते रहे ।

बहुत खूब।